Wednesday, June 30, 2010

दिल्‍ली वालों के पास बहुत पैसा है भाई

पिछले दिनों जब दिल्‍ली की मुख्‍यमंत्री को यह कहते सुना कि दिल्‍ली वालों के पास बहुत पैसा है, तो खुद पर बड़ा गर्व महसूस हुआ। कारण यह नहीं कि मेरे पास बहुत पैसा है, कारण यह कि मैं दिल्‍ली में रहता हूं और हमारी मुख्‍यमंत्री मानती हैं कि दिल्‍ली वालों के पास बहुत पैसा है। पर अगर बात केवल यहीं तक रहती तो अच्‍छा लगता। बात तो आगे बढ़ गई जी। यह बात समझ से परे है कि दिल्‍ली वालों के पास बहुत पैसा है तो क्‍यों जरूरत की सभी चीजों के दाम बढ़ा दिए जाएं। दाल, सब्‍जी, बिजली, पानी, प्रापर्टी टेक्‍स, बसों का किराया, ऑटो का किराया, सी एन जी, पैट्रोल बाप रे। बेचारी दिल्‍ली की जनता उसको ज्‍यादा समृद्ध नहीं होना चाहिए था। और अगर हो भी गई थी तो, उसे बनिए की तरह अपनी सारी जमा पूंजी जमीन में गाड़ कर फटेहाल रहना चाहिए था और जब कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में दुनिया भर के पर्यटक दिल्‍ली आते तो इसी तरह फटेहाल उनके सामने जाना चाहिए, देखो हमारी मुख्‍यमंत्री कहती हैं कि हमारे पास बहुत पैसा है, पर देखो न, हमारे पास तो कुछ भी नहीं है।
एक चुटकुला याद आ गया इस बात पर--एक भिखारी भीख मांगते हुए- भगवान के नाम पर दस रुपए दे दो।
आदमी-- क्‍यों दस रुपए क्‍यों
भिखारी-- अपनी गर्ल फ्रेंड को कॉफी पिलानी है
आदमी- अजीब हो, भीख मांग कर अपनी गर्ल फ्रेंड को कॉफी पिलाते हो
भिखारी-- जी नहीं, गर्ल फ्रेंड है इसलिए भिखारी हो गया हूं

कुछ आशय समझ आया आपको। मुझे लगता है कि दिल्‍ली में रहोगे तो कुछ दिन में भिखारी जैसी हालत हो जाएगी।
खैर यह तो मजाक कर रहा था।
मैंने तो पढ़ा था कि सरकार जनता की, जनता के लिए, जनता द्वारा होती है। और सरकार का मकसद होता है जनता का उत्‍थान, जनता के लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्‍ध कराना आदि आदि। पर ये क्‍या रहा है यहां तो सरकार निरंकुश हो गई लगती है। अब इसका एक ही मकसद प्रतीत होता है, चूस लो जनता को जितना चूस सकते हो।
क्‍या कोई मुझे बता सकता है कि जब दिल्‍ली में बिजली आपूर्ति करने वाली प्राइवेट कंपनियां इतना मुनाफा कमा रही हैं तो बिजली के रेट बढ़ाने की बात मुख्‍यमंत्री द्वारा क्‍यों की गई। नीयत पर संदेह होता है भाई।
जितनी भी तेल कंपनियां हैं, चाहें वे सरकारी ही क्‍यों नहीं हैं, उनको तथाकथित घाटा हो रहा है, इसलिए किरोसीन के दाम बढ़ाओ, पैट्रोल के दाम बढ़ाओ, डीजल के दाम बढ़ाओ, गैस सिलेंडर के दाम बढ़ाओ। क्‍या किसी ने यह प्रयास किया कि ऐसा क्‍या किया जाए कि कंपनियों का मुनाफा भी बना रहे और जनता पर बोझ भी न पड़े।
मुझे जवाब चाहिए, कोई है जो मुझे संतुष्‍ट कर सकता है।

Wednesday, September 2, 2009

सबकुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी

आज अगर हम इस दौड़-भाग की जिंदगी से कुछ पल अपने लिए निकाल कर सोचने बैठें, तो हम सोचने को मजबूर होंगे कि हम कर क्‍या रहे हैं? हम जा कहां रहे हैं ? हमारे नैतिक मूल्‍यों का इतना ह्रास क्‍यों हो रहा है ? आदि आदि। तमाम इस तरह की बातें जो आज महानगरीय संस्‍कृति में आदमी को मानव मूल्‍यों से दूर ले कर जा रही हैं, हमारे मन में उठेंगी। क्‍या आपने कभी इस पर विचार किया ?
अगर किया है तो दोस्‍त कुछ लिख भेजो मेरी पोस्‍ट पर। मैं आपके विचार सुनने को आतुर बैठा हूं।
नरेंद्र

Thursday, March 12, 2009

लोकसभा चुनाव

लोक सभा चुनाव घोषित हो चुके हैं। एक बार फिर तथाकथित नेता जनता के द्वार पर आएंगे। हालांकि नेताओं ने लोकलुभावन बातों का पिटारा खोलना शुरू कर दिया है, पर देखना यह है कि जनता जनार्दन किसको कितना भाव देती है। मैं आप साथियों से पूछना चाहता हूं कि ऐसा क्‍या किया जा सकता है कि हमारे देश में एक स्‍वस्‍थ लोकतंत्र कायम हो सके। एक ऐसा आदर्श लोकतंत्र जिसमें करप्‍शन न हो, जनता का राज वास्‍तव में जनता का ही हो।